माँ-छत्तीसगढ़ के महत्व

जेन ह जिनगी भर लइका ल देते रहिथे। तभे तो प्रसाद जी कहे हे अतेक सुग्घर के मन म वोला गुनगुनाते रहाय तइसे लागथे
इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं, इतना ही सरल झलकता है।
व्यास जी कहे हे- ‘गुनी लइका ह दाई अऊ ददा दूनू ल एक संग देखय त पहिली दाई ल परनाम करय पीछू ददा ल।’
सुग्घर समाज म पढ़े-लिखे लइका मन जहां अपन पांव म खड़ा हो जाथे तहां अपन जनम देवइया महतारी ल अपन संग म नइ रखना चाहंय। कहूं रख लिन त वो मन सोचथें के दाई ह हमर संग हे हमर वोकर संग नई अन।
वो-मन नइ बिचारंय के दाई के मुस्कइ म लइका के बढ़ोतरी, दूध म पुष्टई मोह म परेम अउ जिनगी म सबे कुछु लइका बर नेवछावर कर दे के भाव हे। अइसन दाई हमर खातिर सौहें देवी के रूप आय। तभे तो हमला सास्त्र हुकूम देथे- ‘हे मनुष्य! ईष्ट देवी समझकर माता की सेवा कर’ ‘मातृदेवी भव:’ (तैतरीय 30 111) स्मृति में वचन हे- ‘सहस्त्र तु पितृन्माता गौरवेणाति।’
‘माता (दाई) सौ जन्मदाता के उत्तम हे।’ अपन संतान ल नौ महीना गरभ म रखे अउ कष्ट सहिके वोकर पालन-पोसन करके बड़े करथे। तेखरे सेती ‘महतारी’ के पदवी सबले उचहा हे। ‘गर्भधारण पोषाध्दि ततो माता गरीयसी।’ महतारी के विरूध्द आचरन सतांन ल कभू नइ करना चाही। लइका मन खातिर ‘दाई’ ह देवी देवता आय। जेकर दाई-ददा हावे तेकर बर दूसर देवी-देवता ल पूजे के जरूरत नइय्ये।’
‘मातृतोकन्यो न देवोऽस्ति तस्मात्पूज्या सदा सुतै:।’
(ऋग्वेद 10113-4)
जन मन से ऊपर कांही दुख पीरा खाए त मुंह ले सबले पहिले हा दाई! हा दाई!! निकलथे। ‘आपादि मतैव शरणम्’ महतारी के सरीख हमर सरीर के पालन-पोसन करइय्या कोनो नइये। ‘मात्रा समं नास्ति शरीर पोषणाम्।’
महतारी के परेम अपन लइका बर जनम ले लेके बुढ़ावत तक बरोबर एक समान बने रथे। लइका भले कुपुत्र हो जाय फेर दाई ह कभू कु-माता नई होवय।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कु.माता न भवति। (दुर्गासप्तशती)
जो लइका अपन दाई-ददा के सेवा करत रथे वोला लम्बा उमर जस, लड़ई सबे सहज म मिटा जाथे।
‘आयु: पुमान, यश:, स्वर्ग:, कीर्ति: पुन्यं बलं श्रियं।’
पशुं सुखं धनं धान्यं प्राप्नुशान्मातृ वन्दनात् (भावप्र 1013-4)
जे दाई-ददा के सेवा नि करय उंकर बर सास्त्र कथे- कि उनला धिक्कार हे, जेन सब सुख देवइय्या दाई ददा के सेवा नि करय।
धिगस्तु जन्म तेणां वे कृत्घ्ानां च पापिनाम।
ये सर्वसौख्यदां देवी सोपास्यां न भजन्ति वै।
(म.वा.सर्ग 34-5-6)
हमर देस म बहुत पहिले के नारी के सनमान होवत हे। वो ह बेवहार म घला दिखथे। पहिले माई लोगिन के नाव लेंथे पीछू बाबू पिला के। जइसे सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, सची पुरंदर, माता-पिता। इही पूज्य भाव ल कहे गे हे- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादऽपि गरीयसी॥
दाई के हिरदे अपन लइका खातिर पियार म लबालब भरे रथे। इही बात ल आज ले 22 बछर पहिले मोला दुर्गासंकर जी व्यास, साहित्यकार सास्त्री ह बताय रहिस हे। (ये लेख ल लिखत-लिखत उंकर सुरता आगे) तेला बतावत हंव तुहुं मन धियान लगा के पढ़व-
एक झन दाई के लइका ह अपन दफ्तर म बइठे रहिथे। चार झन मन घला वोकर करा बइठे रहिथे। तेखर मन संग वो लइका ह गोठ-बात करत रहिस। तभे चपरासी भीतरी म आथे अउ कथे- ‘पंडित जी, तुंहर दाई तुंहर करा मिले बर आये हे।’
दाई आय हे! पचपन बरिस के सियानिन! सुन के अचकचागे। सोचे लागिस एक मील दुरिहा ले का काम आगे ते। अइसे गुनत-गुनत वो ह आफिस से निकर के सीढ़िया उतरे लागिस। आधे दुरिहा म वोकर दाई संग भेंट होगे पूछिस- ‘दाई! अतेक घाम म तें काबर आए हस ओ।’ वोकर दाई ह झोरा म धरे डब्बा ल निकारिस अउ कहिस- ‘बेटा! मंझन होगे तें खाय बर नइ आय त में कइसे खातेंव। ये दे तोर बर रोटी नाने हंव।’ खा ले बेटा। दाई के ममता भरे बात ल सुनिस त लइका के रूंवा घुरघुरागे। कहिस- ‘दाई, अब में अकेल्ला नि खावंव तंहु ल मोर संग बइठ के खाय बर लागही।’ उंकर महतारी-बेटा के गोठ ल दफ्तर म बइठे रहंय ते मन सुनत रहंय। एक झन ह कथे- ‘देख तो सियानिन ल कतका मया हे अपन बेटा बर। खरीघाम म रोटी धर के नाने हे।’ त दूसर ह कथे- ‘ये महतारी के ‘दिल’ ये भाई!’ धन हे महतारी ल जेन अपन लइका खातिर अपन सुख ल तियाग देथे अउ धन्न हे वो लइका ल जउन अपन महतारी के सेवा करथे। तभे तो ऋक संहिता म कहे हे-
”वर मेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतानयऽपि।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराऽणा अपि॥”
बहुत अकन लेड़गा लइका ले तो एक झन हुसियार लइका अच्छा हे।
हमर देस म अइसे-अइसे दाई-ददा के सेवा करइया लइका होय हें। जेकर हमन सुरता करन त हमर कल्यान हो जावय। आवा भूले-बिसेर उनला सुरता कर लन।
भगवान श्रीराम- केकई भगवान राम के छोटे दाई ये। वोह अपन पति दशरथ करा दू ठन बरदान मांगिस। एक भरत ल रा अउ राम ल बनवास। अपन महतारी के अइसन आज्ञा पालन करे बर भगवान राम बनवास चल दिन।
श्रवणकुमार- दाई-ददा के तीरथ जाय के मन हे, अइसे जान के जब वो मन अपन विचार ल अपन बेटा करा जनाइन तउंकर बेटा सरवन कुमार ह प्रसन्न मन ले कांवर म बोह के तीरिथ कराइस।
भीष्म-अपन ददा के इच्छा ल जान के अपन जवानी ल कुरबान कर दिस अउ जिनगी भर ब्रह्मचारी रहि के अपन ददा के इच्छा ल पूरा करिस।
राजकुमार चण्ड- जोधपुर के राजा ह चितौड़ के राजकुमार चण्ड खातिर अपन राजकुमारी के प्रस्ताव ले के नरियर भेजिस। हांसी-ठट्ठा म चण्ड के ददा राणा लाखा ह कहि दिस- ”अब कोनो मोर बुढ़ुवा बर नरियर थोरे भेजही।” राजकुमार चण्ड अपन ददा के बात ल सुन दिस अउ कहिस-”हाँसी म मोर ददा ह भले कहि दिस फेर अब वो राजकुमारी ह मोर महतारी समान होगे मैं वोकर संग बिहाव नइ करवं।” समझाय-बुझाय म घला नि मानिस त वोकर ददा राणा लाखा ह कथे-”चण्ड ते नइ मानस त सुन-नवा रानी के जेन बेटा होही तिही ह राज गद्दी ल पाही।” राजकुमार चण्ड अपन ददा के बात ल निभाय बर जिनगी भर ब्रह्मचारी रहिस। राणा लाखा के संग राजकुमारी के बिहाव होगे वोकर एक झन बेटा होगे। थोकन दिन बीते बाद म राणा लाखा के सरगवास होगे। अबोध लइका ल चण्ड पालिस-पोसिस अउ समे आय म वोकर राजतिलक कर दिस अउ सगर दिन अपन दाई के आदेस मानत रहिस अउ राज के बेवस्था ल करत रहिस।
महतारी तो महतारी होथे। अपन लइका के जब लाड़-दुलार करत रथे तब ‘दाई’ मन अपन ल बड़भागी मानथें।
लइका खातिर दाई सदा दिन गाय सरीख सिधवा अउ गंगा सही पबरित हे। तभे तो वेद म कहे गे हे- ‘पृथ्वी म भगवान के बरोबर दाईच्च हर हे। जेन ह जिनगी भर लइका ल देते रहिथे। तभे तो प्रसाद जी कहे हे अतेक सुग्घर के मन म वोला गुनगुनाते रहाय तइसे लागथे
इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं, इतना ही सरल झलकता है।
माँ के महत्व ल बतावत व्यास जी कहे हें-”गुनी लइका, दाई-ददा दुनो ल एक संग देखय त पहिली दाई ल परनाम करय पीछू ददा ल।”
प्रणम्य मातरं पश्चात प्रणमेत पितरं गुरुम।
अइसे देवी रूप माता ल हमला सदैव प्रणाम करना चाही अउ उंकर आशा ल मानना चाही।
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

राघवेन्द्र अग्रवाल
खैरघटा वाले
बलौदाबाजार

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One Thought to “माँ-छत्तीसगढ़ के महत्व”

  1. शकुन्तला शर्मा

    चन्दन कस तोर माटी हे मोर छत्तीसगढ महतारी छत्तीसगढ महतारी ओ माई छत्तीसगढ महतारी ।
    तोर कोरा हे आरुग माई तैं सबके महतारी तैं सबके महतारी ओ माई तैं सबके महतारी ।
    सुन्दर , संग्रहणीय पोस्ट । बधाई ।

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